विद्यापति की जीवनी श्रृंगार रस के महान कवि

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श्रंगार, सौंदर्य, भक्ति अवं प्रेम रस के महान कवि विद्यापति ठाकुर की जीवनी, रचनावों एवं चरित्र चित्रण पर संक्षिप्त जानकारी

विद्यापति का जीवन परिचय
विद्यापति का पूरा नामविद्यापति ठाकुर
विद्यापति का जन्म1360-1448 ई.(अनुमानित)
जन्म स्थल ग्राम विसपी, दरभंगा (बिहार)
पिता गणपति ठाकुर
माता श्रीमती गंगा देवी
पत्नीमन्दाकिनी
पुत्र और पुत्रवधू हरपति और चंद्रकला
पुत्री दुल्लहि
गुरुपण्डित हरि मिश्र
सहपाठीविख्यात न्यायिक जयदेव मिश्र उर्फ़ पक्षधर मिश्र
बाल सखा एवं मित्रजय देव सिंह
आश्रयदातातिरहुत के राजा गणेश्वर, कीर्तिसिंह एवं शिवसिंह
उपाधियाँइन्होने  स्वयं को ’खेलन कवि’ कहा। अन्य – मैथिली कोकिल, अभिनव जयदेव, नवकवि शेखर कवि कष्ठहार, दशावधान, पंचानन ,इटली का दांतें, इंग्लैंड का चासर ।
संस्कृत में इनकी रचनाएँ शैव सर्वस्वसार, गंगावाक्यावली, दुर्गाभक्तितरंगिणी, भूपरिक्रमा, दानवाक्यावली, पुरुष परीक्षा, लिखनावली, विभागसार, गयपत्तलक वर्णकृत्य है।
अवहट्ठ में इनकी रचनाएँकीर्तिलता (1403 ई.), कीर्तिपताका (1403 ई., अप्राप्य)
मैथिली में इनकी रचनाएँपदावली
भाषा मैथली
भक्त कवि शैव
काव्य रस श्रृंगारिक व भक्ति रस

जीवन परिचय

विद्यापति का जीवनी: विद्यापति का पूरा नाम विद्यापति ठाकुर था। विद्यापति का जन्म 1350 ई में एक ब्राम्हण परिवार में ग्राम बिस्फी, जिला मधुबनी, मंडल- दरभंगा, बिहार राज्य में हुआ था। विद्यापति मिथिला के निवासी थे और बिसाइवर कुल के विष्णु ठाकुर (राज पुरोहित) की 8वी पीढ़ी की संतान थे। विद्यापति जी की माता का नाम गंगा देवी और पिता का नाम गणपति ठाकुर था।

शिक्षा एवं परिवार

विद्यापति को अपनी प्रारंभिक शिक्षा महामहोपाध्याय हरि मिश्र के द्वारा मिली। विद्यापति की पत्नी का नाम मंदाकिनी और पुत्री का नाम दुल्लहि था। विद्यापति के पुत्र का नाम हरपति और पुत्रवधू का नाम चंद्रकला था। वैसे रामवृक्ष बेनीपरी उनकी माँ का नाम हाँसनी देवी बताते हैं, पर विद्यापति के पद से (हासिन देवी पति गरुड़नरायन देवसिंह नरपति) से स्पष्ट होता है कि हाँसनी देवी महाराज देवसिंह की पत्नी का नाम था। कहते हैं कि गणपति ठाकुर ने कपिलेश्वर महादेव (वर्तमान मधुबनी जिला में अक्स्थित) की घनघोर आराधना की थी, तब जाकर ऐसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। उन्हें ‘मैथिल कवि कोकिल’ (मैथिली के कवि कोयल) भी कहा जाता है। विद्यापति का उद्देश्य मैथिली और संस्कृत साहित्य तक ही सीमित नहीं था, बल्कि और भी पूर्वी भारतीय साहित्यिक परम्पराओं में भी व्यापक रूप से था।

विद्यापति के समय की भाषा, प्राकृत (मध्यकालीन आर्यभाषा), अवहट्ट (पुरानी हिन्दी), पूर्वी भाषाओं जैसे मैथिली और भोजपुरी के शुरुआती संस्करणों में परिवर्तित होना शुरू हो गया था। इस प्रकार इन भाषाओं को बनाने पर विद्यापति जी के प्रभाव को “इटली के राष्ट्रकवि दांते एलीगियरी (Dante Alighieri) और इंग्लैंड में जेफ्री चासर (Geoffrey Chaucer के समान” माना जाता है। विद्यापति को “बंगाली साहित्य का जनक” कहा गया है।

भाषा

विद्यापति भारतीय साहित्य की भक्ति परंपरा के प्रमुख स्तंभों मे से एक और मैथिली के सर्वोपरि कवि के रूप में जाने जाते हैं। इनके काव्यों में मध्यकालीन मैथिली भाषा के स्वरुप का दर्शन किया जा सकता है। इन्हें वैष्णव और शैव भक्ति के सेतु के रूप में भी स्वीकार किया गया है। मिथिला के लोगों को ‘देसिल बयना सब जन मिट्ठा’ का सूत्र दे कर इन्होंने उत्तरी-बिहार में लोकभाषा को एक अच्छा नाम देने का अद्भुत प्रयत्न किया है।

विद्यापति किस रस के हैं?

विद्यापति को अलग-अलग विद्वानों ने शृंगारी, भक्ति या रहस्यवादी कवि माना है – विद्यापति मूलतः शृंगारी कवि है।

महान कवि विद्यापति के लिए कुछ शायरियां;

श्रृंगारी होते हुए भी भक्ति के दीवाने मैथली के कोकिल का काम है जैसा

प्रेम और सौंदर्य के कवि अभिनव जयदेव का नाम है ऐसा।

अभिनय जयदेव थे कवि,

काव्य के सागर में बहुत अगर,

प्रेम और भक्ति के भावों से भरे

उनके काव्य जिवंत नगर।

श्रृंगार, वीर और शांत रसों में,

करते थे वे कल्पनाओ की ढेर

कृष्ण और राधा के लीला का वर्णन,

उनके काव्य में रहा अद्भुत मेल,

विद्यापति श्रृंगार रस के कवि है।

विद्यापति (1352-1448ई) मैथिली और संस्कृत कवि, संगीतकार, लेखक, दरबारी और राज पुरोहित के रूप में जाने जाते है। वे शिव के भक्त थे, लेकिन उन्होंने प्रेम के गीत और भक्ति वैष्णव गीत भी लिखे [ मैथिली के कवि कोयल] कहे जाने वाले विद्यापति का प्रभाव केवल मैथिली और संस्कृत तक ही नहीं था, बल्कि अन्य पूर्वी भारतीय साहित्यिक परम्पराओं में भी था।

विद्यापति प्रेम और सौंदर्य के कवि हैं 

विद्यापति श्रृंगार रस के कवि हैं। रसिकता, रूप और माधुर्य के इस कवि का रुझान सौंदर्य की और होना स्वाभाविक ही था। इसमें भी उनकी भक्ति -भावना ने एक ओर उनको अपरूप सौंदर्य बनाया तो दरबारी वातावरण, रसिक प्रवृत और आश्रयदाताओं की रूचि पूर्ववर्ती श्रृंगार परम्परा के मोह और समकालीन वातावरण ने उन्हें मांसल और मानवीय सौंदर्य के प्रति उन्मुख किया। इन सभी तत्वों ने मिलकर उनके काव्यों में सौंदर्य चित्रण को प्रभावित किया होगा।

हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ शुक्ल जी ने सम्वत् 1050 से माना है। वे मानते हैं कि प्राकृत की अन्तिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आरम्भ होना चाहिए इसे ही वे वीरगाथा काल मानते हैं। उन्होंने इस सन्दर्भ में इस काल की जिन आरम्भिक रचनाओं का उल्लेख किया है उनमें विद्यापति एक प्रमुख स्थान रहा हैं तथा उनकी प्रमुख रचनाओं का इस काल में बड़ा महत्व है।

प्रमुख रचनाएं

विद्यापति की प्रमुख रचनाएं हैं- कीर्तिलता कीर्तिपताका तथा पदावली। कीर्तिलता के बारे में यह स्पष्ट लिखा है कि-ऐसा जान पड़ता है कि कीर्तिलता बहुत कुछ उसी शैली में लिखी गई थी जिसमें चन्दबरदाई ने पृथ्वीराज रासो लिखा था।

यह भृंग और भृंगी के संवाद-रूप में है। इसमें संस्कृत और प्राकृत के छन्दों का बहुत प्रयोग हुआा है। संस्कृत और प्राकृत के छन्द, रासो में बहुत आए हैं। रासो की तरह कीर्तिलता में भी गाथा छन्द का व्यवहार सामान्य और प्राकृत भाषा में हुआ है।

उपरोक्त जानकारियों से यह तो स्पष्ट है कि विद्यापति को आदि काल के ही परिधि में रखना उचित होगा। विद्यापति के पदों में मधुरता और योग्यता का गुण अद्वितीय रूप से विद्यमान है। अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने उनके काव्य की प्रशंसा करते हुए लिखा है- “गीत गोविन्द के रचनाकार जयदेव की मधुर पदावली पढ़कर जैसा अनुभव होता है, वैसा ही विद्यापति की पदावली पढ़ कर भी। अपनी कोकिल कंठता के कारण ही उन्हें ‘मैथिल कोकिल’ कहा जाता है।”

इतिहासकारों के मध्य प्रायः यह मान्य है कि मैथिली भाषा के कवि विद्यापति का जन्म चौदहवीं शताब्दी के छठे दशक (1360 के दशक में) में तथा देहावसान पंद्रहवीं शताब्दी के आठवें दशक में हुआ था। इसलिए साहित्य इतिहास की दृष्टि से विद्यापति का जन्म भले ही (आदिकाल संवत 1050वि•से संवत् 1352वि•) में हुआ है परन्तु उनकी कृतियों पर पदावली पर भक्तिकालीन लक्षण ही दिखाई पड़ते है।

भाषाओँ का समावेश

विद्यापति ने संस्कृत, अवहट्ठ, एवं मैथिली में कविता रची। इसके अलावा भूपरिक्रमा, पुरुषपरीक्षा, लिखनावली आदि अनेक रचनाएँ साहित्य में बहुत मत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। कीर्तिलता और कीर्तिपताका नामक रचनाएं अवहट्ठ में लिखी हैं। पदावली उनकी हिन्दी-रचना है और वही इनकी प्रसि़द्धि का कारण हैं। पदावली में कृष्ण-राधा के विषयक श्रृंगार के मनोहारी पद हैं। इसी के आधार पर इन्हे हिन्दी में राधा-कृष्ण-विषयक श्रृंगारी काव्य के जन्म दाता के रूप में जाना जाता है। विद्यापति की ’पदावली’ अत्यंत प्रसिद्ध है। यह भक्तिपरक रचना है या श्रृंगारपरक, इसे लेकर विद्वानों में विभिन्न प्रकार के मतभेद है।

विद्यापति के विषय में यह भी जानना जरुरी है की ‘पदावली’ में प्रार्थना और नचारी (लाचारी) के अंतर्गत पदों में दुर्गा, गंगा, जानकी, शिव, कृष्ण के आराधना-गीत हैं अतः बहुत से विद्वानों ने इन्हें भक्ति रस का कवि माना। मिथिला में इन्हें कोई वैष्णव भक्त कवि नहीं मानता, जबकि बंगाल में मानते हैं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार – ’’विद्यापति के पद अधिकतर श्रृंगार के ही हैं जिनमें नायिका और नायक राधा-कृष्ण हैं। विद्यापति को कृष्ण भक्तों की परंपरा में नहीं समझना चाहिये।’’ विद्यापति का संबंध शैव संप्रदाय से था। हिंदी में इन्हें कृष्णगीति परंपरा का प्रवर्तक माना है।

विद्यापतिं जी एक अद्भुत प्रतिभाशाली कवि थे। उनके काव्य में एक ऐसा आकर्षण एवं चमत्कार है कि सहृदय पाठक को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। निस्सन्देह विद्यापति जी आदिकाल के हिन्दी-काव्य-गगन में अप्रतिम तेजोमय मार्तण्ड हैं।

विद्यापति के श्रृंगारी कवि होने का कारण बिल्कुल स्पष्ट है। वे दरबारी कवि थे और उनके प्रत्येक पद पर दरबारी वातावरण की छाप स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। कृष्ण के कामी स्वरूप को पदावली में उल्लेखित किया गया है। यहां कृष्ण जिस रूप में उल्लेखित हैं वैसा उल्लेख, करने का दुस्साहस कोई भक्त कवि नहीं कर सकता। इसके अलावा राधा जी का भी चित्रण मुग्धा नायिका के रूप मे किया गया है। विद्यापति वास्तव में कवि थे, उनसे भक्त के समान अपेक्षा करना ठीक नहीं होगा। उन्होंने नायिका के वक्षस्थल पर पड़ी हुई मोतियों की माला का जो वर्णन किया है उससे उनके कवि हृदय की भावुकता एवं सौंदर्य अनुभूति का अनुमान भली भांति लगाया जा सकता है।

विद्यापति के समय की भाषा, प्राकृत – देर से व्युत्पन्न अवहट्ट, पूर्वी भाषाओं जैसे मैथिली और भोजपुरी के शुरुआती संस्करणों में परिवर्तित होना शुरू हो गया था। इस प्रकार, इन भाषाओं को बनाने पर विद्यापति के प्रभाव को “इटली में दांते और इंग्लैंड में चासर के समान” माना जाता है और उनको अभिनव जयदेव और महाकवि मैथली कोकिल कहा गया।

विद्यापति भारतीय साहित्य की ‘श्रृंगार-परम्परा’ के साथ-साथ ‘भक्ति-परम्परा’ के प्रमुख स्तंभों मे से एक प्रमुख मैथिली के सर्वोपरि कवि के रूप में जाने जाते हैं। इनके काव्यों में मध्यकालीन मैथिली भाषा के स्वरूप का दर्शन किया जा सकता है। इन्हें वैष्णव, शैव और शाक्त भक्ति के सेतु के रूप में भी स्वीकार किया गया है। इन्होंने उत्तरी-बिहार में लोकभाषा की जनचेतना को जीवित करने का महान् प्रयास किया है।

हिन्दी साहित्य में सर्वप्रथम मैथिली कवि विद्यापति ने हि ’कृष्ण’को अपने काव्य का मुख्य विषय बनाया।

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इन्हें ‘श्रृंगार रस के सिद्ध वाक् कवि’ माना था। ।

कीर्तिलता राजा कीर्तिसिंह का प्रशस्ति काव्य है जिसे हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘भृंग भृंगीसंवाद’ का नाम दिया था।

बच्चन सिंह ने विद्यापति को ‘जातीय कवि’ की संज्ञा दी।

निराला ने इनकी पदावली के श्रृंगारिक पदों की मादकता को ‘नागिन की लहर’ कहा।

विद्यापति के द्वारा रचित भगवान शिव की भक्ति में रचे गये वे पद जो नृत्य के साथ गाये जाते हैं, नचारी कहलाते हैं।

. विद्यापति को अलगअलग विद्वानों ने श्रृंगारी, भक्त या रहस्यवादी कवि माना हैविद्यापति मूलतः श्रृंगारी कवि है।

  • श्रृंगारी – रामचंद्र शुक्ल, हरी प्रसाद शास्त्री, रामकुमार वर्मा, रामवृक्षबेनीपुरी, सुभद्रा झा।
  • भक्त बाबू ब्रजनंदन सहाय, श्यामसुंदर दास, हजारी प्रसाद द्विवेदी।
  • रहस्यवादीग्रियर्सन, जनार्दन मिश्र, नागेन्द्रनाथ गुप्त।

विद्यापति के विषय में कुछ प्रमुख कथन –

आचार्य रामचंद्र शुक्ल – “आध्यात्मिक रंग के चश्में आजकल बहुत सस्ते हो गये हैं, उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने ‘गीत गोविन्द’ को आध्यात्मिक संकेत बताया है वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी।”

🔹 आचार्य रामचंद्र शुक्ल – “जयदेव की दिव्य वाणी की स्निग्ध धारा जो कि काल की कठोरता में दब गयी थी, अवकाश पाते ही मिथिला की अमराइयों में प्रकट होकर विद्यापति के कोकिल कंठ से फूट पङी।”

🔸 शान्तिस्वरूप गुप्त – “विद्यापति पदावली ने साहित्य के प्रांगण में जिस अभिनव बसंत की स्थापना की है, उसके सुख-सौरभ से आज भी पाठक मुग्ध है क्योंकि उनके गीतों में जो संगीत धारा प्रवाहित होती है वह अपनी लय सुर ताल से पाठक या श्रोता को गद्गद् कर देती है।”

🔹 श्याम सुंदर दास – “हिन्दी में वैष्णव साहित्य के प्रथम कवि प्रसिद्ध मैथिली कोकिल विद्यापति हुए। उनकी रचनाएँ राधा और कृष्ण के पवित्र प्रेम से ओत-प्रोत हैं।”

🔸 रामकुमार वर्मा – “राधा का प्रेम भौतिक और वासनामय प्रेम है। आनंद ही उसका उद्देश्य है और सौन्दर्य ही उसका कार्य कलाप।”

विद्यापति की प्रमुख पंक्तियाँ –

“देसिल बअना सब जन मिट्ठा। तें तैं सन जंपओ अवहट्ठा।।” – (कीर्तिलता)

जय जय भैरवि असुर भयाउनि, पसुपति भामिनि माया।

नंदक नंदन कदम्बक तरु तर, धिरे-धिरे मुरलि बजाव।

सहज सुन्दर गौर कलेवर पीन पयोधर सिरी।

खने-खने नयन कोन अनुसरई। खने-खने बसन धूलि तनु भरई।

पीन पयोधर इबरि गता। मेरु उपजल कनकलता।

जहाँ जहाँ पद जुग धरई। तहिं तहिं सरोरुह झरई।

नव बृंदावन नव नव तकगन, नव नव विकसित फूल।

सरस वसंत समय भल पाओलि, दखिन पवन बहु धीरे।

सखि हे, कि पूछसि अनुभव मोय।

सोइ पिरिति अनुराग बखानिअ, तिल-तिल नूतन होय।सैसव जोवन दुहु मिलि गेल।

रज्ज लुद्ध असलान बुद्धि बिक्कम बले हारल।

पास बइसि बिसवासि राय गयनेसर मारल।।

मारत राय रणरोल पडु, मेइनि हा हा सद्द हुअ।

सुरराय नयर नरअर-रमणि बाम नयन पप्फुरिअ धुअ।।

कतहुँ तुरुक बरकर। बार जाए ते बेगार धर।।

धरि आनय बाभन बरुआ। मथा चढ़ाव इ गाय का चरुआ।।

हिन्दू बोले दूरहि निकार। छोटउ तुरुका भभकी मार।।

जइ सुरसा होसइ मम भाषा। जो जो बुन्झिहिसो करिहि पसंसा।।

जाति अजाति विवाह अधम उत्तम का पारक।

पुरुष कहाणी हौं कहौं जसु पंत्थावै पुन्नु।

बालचंद विज्जावहू भाषा। दुहु नहि लग्गइ दुज्जन हासा।।

इनकी पदावली से –

खने खने नयन कोन अनुसरई। खने खने वसत धूलि तनु भरई।।

सुधामुख के विहि निरमल बाला

अपरूप रूप मनोभव-मंगल, त्रिभुवन विजयी माला।।

सरस बसंत समय भला पावलि दछिन पवन वह धीरे,

पनहु स रूप बचन इक भाषिय मुख से दूरि करु चीरे’

विद्यापति से जुड़े अन्य महत्वपूर्ण तथ्य:

विद्यापति आदिकाल से समन्वय के कवि कहे गए है।

ये आदिकाल को भक्तिकाल से जोड़ने वाले सेतु कहे जाते है।

इनका प्रिय ग्रन्थ जयदेव का गीत गोविन्द है।

इनके प्रिय कवि जयदेव है।

इनकी रचनाओं में ’कीर्तिलता, ‘कीर्तिपताका’ और ‘पदावली’ उल्लेखनीय हैं, इनमें प्रथम दो रचनाएं अपभ्रंश/अवहट्ठ में हैं तथा ‘पदावली’ देश भाषा में, डाॅ. बच्चन सिंह ने ‘पदावली’ को देशभाषा में प्रथम रचना मानते हुए विद्यापति को हिन्दी का पहला महान कवि माना है। “गोरक्ष विजय नाटक” एक अंक का नाटक जिसमें संवाद संस्कृत व प्राकृत (मध्ययुग की आर्यभाषा) में तथा गीत मैथिली भाषा में है।

विद्यापति का जन्म कब हुआ था?

विद्यापति का जन्मस्थान कहाँ है?

विद्यापति के पत्नी का क्या नाम था?

विद्यापति किस रस के कवी थे?

विद्यापति की रचनाएँ कौन कौन सी हैं?

विद्यापति कौन से भाषा का कवी हैं?

विद्या पति के जीवन परिचय एवं रचनाओं पर प्रकाश डालिये?

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